Sunday, April 20, 2008

.....बळ दे !

.....बळ दे !

दोन हांत जोडून माझं एकंच मागणं देवा ,
दु:ख दूर करु नकोस , पण ते सोसायचं बळ दे !

कोण तसा जीवनांत सुखासीन असतो?
स्वदु:खात आणि परसुखात हसायचं बळ दे !

जीवनाच्या जुगारांत हार्-जीत असणारच ,
एकदा तरी "सुंदर" शी खेळी "फसायचं" बळ दे !

दिवसा ढवळ्या भले कितीही पापं लपू देत ,
अंधारातही स्वतःच्या चुका दिसायचं बळ दे !

कुणीतरी जीव लावेलंच ना या वेड्याला?
थकून कधी ते अश्रू ढाळील , तर ते पुसायचं बळ दे !

स्वप्नं ऊरी कवटाळून रमी खेळत रहाणारा मी ,
सरते "शेवटी" "प्लस्" व्हावं , इतकं पिसायचं बळ दे !

स्वप्नंपूर्तीनंतर फारसं जगावंसं वाटत नाही , पण.....
राहिलोच तसा , तर्.....सर्वांत असूनही नसायचं बळ दे !

Saturday, April 19, 2008

दंव

दंव

ग्रीष्मातली पानगळ बघून
पहाटे पहाटे देव रडला

त्याचा आसवांचा सडा
पाना-फुलांवर अलगद् पडला

माणूस.....इतका भावनाशून्य
कसा कांय देवाकडून घडला?

अश्रू ओळखेनात देवाचे?
म्हणे केव्ह्ढा हा"दंव" पडला !

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उदय गंगाधर सप्रे-ठाणे
कलास्वाद : http://uday-saprem.blogspot.com

आणि

कवितांजली : http://uday-sapre.blogspot.com/

गजरा.....

गजरा.....

लांब केसांची वेणी उदास वाटते
केसांत फुलं माळ ग जरा

"चेहृयामागेही सौंदर्य आहे !"
डोकावून हळूच सांगेल गजरा

उदय गंगाधर सप्रे-ठाणे
कलास्वाद : http://uday-saprem.blogspot.com

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नकलाकार.....

नकलाकार.....

कधी अभिनय कधी नकला
अशा कला करतो साकार आहे

वेड्यावाकड्या आयुष्याला आपल्या
तो नेहेमीच देतो आकार आहे

मेजकं तेव्हढंच सर्वांचं उचलून
ते रंगवणारा कलाकार आहे

सगळ्यांच्या नकला सादर करणारा
मराठीत मात्र "न" कलाकार आहे !

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उदय गंगाधर सप्रे-ठाणे
कलास्वाद : http://uday-saprem.blogspot.com

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Friday, April 18, 2008

"उरून राहता येतं!"

उरून राहता येतं !

हातात काठी आली म्हणून कुणी वृ ध्द होत नाही
वय लहान असूनही सर्वांना कुठे तरुण राहता येतं?

चांदणं आधी मनांत फुलावं लागतं अलगद्
मगच पौर्णिमेच्या चंद्राचं सौख्य पाहता येतं !

मनाचा गाभारा बुलंद असेल तरच दृष्टीचा फायदा
उगीचच का रवींद्र जैनच्या संगीतात सुरांना नाहता येतं?

कुंचला फिरवता आला नाही तरी बेहत्तर
रसिकता असेल, तर शिंतोड्यातही नहाता येतं !

तुमचं प्रेमंच इतकं उत्तुंग हवं कुणाहीवरचं
मग्.....ते "परकं" झालं तरी तुम्हाला चाहता येतं !

येणार्‍या हर अनुभवांत काव्य दडलेलं असतं
हे समजणार्‍यालाच काव्य सराहता येतं !

कैफ दु:खाचाही असा बेधुंद असावा , की
चुकून आलंच कधी तर्.....सूख पण साहता येतं !

कुणाच्याही दु:खात आपले डोळे भरतातच
किती जणांच्या सुखात पण, अश्रूंना वाहता येतं?

स्वतःला विसरून आपलंसं करावं कुणाला
तेंव्हाच कुठे कुणाच्या स्मृतीत "उरून राहता येतं!"

प्लॅन्चेट

कुछ निवेदन :
यह कविता हिंदोस्ताँ के हर उस शख्स को मैं समर्पित करता हूं जिसके दिलमें इस देश के लिए बेतहाशा इज्जत है , की यह देश दुनिया का एक ही देश है , जिसने इस देशपर आक्रमण करनेवाले हर देश के नागरीक को यहाँ पनाह दी है !
यह कविता मैं हिंदोस्ताँ के मशहूर वैज्ञानिक श्री.ए.पी.जे.अब्दुल कलाम और भूतपूर्व प्रधानमंत्री आदरणीय अटल बिहारी वाजपेयी जी को समर्पित करता हूं !
और्.....यह कविता हर उस शख्स को समर्पित है जिस की रूह में अब तक शहीदों की कुर्बानी जिंदा है ! जिस को आजादी की कीमत पता है और जो किसी भी जाती या धर्म का नहीं बल्की इन्सानियत का बंदा है !
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प्लॅन्चेट

एक दिन मेरे दिल में यह खयाल आया ,
की क्यूं न मैं किसी शहीद की रूह से बातें करूं?
पर तब यह भी अह्सास हुवा की मुझे प्लॅन्चेट नहीं आती !
फिर भी मैंने श्रध्दा से एक कटोरा उलटा रखा
दिल ही दिल में भगतसिंह का ध्यान किया
फिर एक अगरबत्ती जलाई और एक दीप जलाया

तब्.....उस कमरेमें सिर्फ अंधेरा था
सिवा एक दिये के रौशनी का न बसेरा था
कुछ पल बाद ही मुझे बुलंद सी आवाज आई,
"बोल मेरे आजाद देश के प्यारे भाई !
क्या चाहता है तू अब इस कंगाल रूह से,
जिसने अपना तन मन धन यहाँ बिखेरा था?!"

मैंने कहा, "भगत प्रा जी , आप कहाँ हो?"
तब फिर वह आवाज दर्द भरी आई,
"कहाँ हूं? ऐ दोस्त, ऐ भाई, १६ अगस्त १९४७ से
आज तक्.....मैं हर उस जगह पे हूं
जहाँ हमनें खून बहाया है
काश की तु देख सकता ,
आज देश की हालत देख
हर शहीद अपनेही आँसूं नहाया है !

जिस नारी के सभ्यता शिष्टाचार को देख
ऐना कोर्निकौवा भी सारी पहने,
उसी नारी को क्लबों में नचाकर
ऐय्याशी करनेवालों, तुम्हारी क्या कहनें?

वीर सावरकर की तसवीर कहाँ लगाएं
इस पर बहस करता है एक पढा लिखा मंत्री
जिनकी मौत पर .....कईं अंग्रैज भी भूखें रहे
और खडी ताजीम देनेवाले थे कई संत्री !

छूत अछूत की दुनिया से परें
पूरे देश में चर्चा का कोई विषय नहीं
अमरीका चिंतीत है के कहीं हिंदोस्ताँ आगे न निकल पाएं
पर "अमरीका से आगे प्रगती" यह यहाँ आशय नहीं !

मूंग के लड्डू , मकई की रोटी
सरसों का साग अब ऐन्टीक है,
कोक , फ्रैन्च फ्राईज् और पिज्जा
आज की नस्ल के लिए "फॅन्टास्टीक" है !

एक वैज्ञानिक होनेके बावजूद
परदेस की आंस नहीं रखता "कलाम"
और सिर्फ MBA-MS करनेसे
बन रहे हैं DOLLARS-EURO के करोंडों गुलाम !

पर अब दोष भी नहीं दिया जाता किसी को
के हर कोई सभ्य नागरीक वंचित है एक हँसी को
लुटेरोंके रूपमें बैठें है कई सांड CABINET में
अब डरता नहीं कोई चोरोंसे, मरता है पर "पुलीस" की फँसी को ! "

कुछ देर तक सन्नाटा छाया रहा,
मैं अपनेही आँसूं पलकोंमें बिछाया रहा
और फिर वो "आहट" भी धुंदली हुई
मैं कटोरे में "पानी" को पाया रहा !

उस "पानी" को तीरथ समझकर
मैंने आँखोंसे हाथ फेरा
फिर अपने हथेली पे कुछ बूंदे लें मूह में लीं
जायका "नमकीन" हो उठा मेरा !

तब मैंने ठान ली की ,"हे भगवान,
अब मैं कभी प्लॅन्चेट नहीं करूंगा
किसी शहीद की रूह को बुलाकर
उसकी आँखोंमें पानी नहीं भरूंगा !

की अचानक्.....फिर से वही आवाज आई,
"रो मत मेरे प्यारे भाई,
तू समझता है तेरे प्लॅन्चेट से हम आअँ हैं?
अरे इन हजारों करोंडों लाशोंमें एक तो "जिंदा" रूह हो
इसलिए हम शहीद ही प्लॅन्हेट कर रहे थे.....
के तूने अपनी हस्ती दिखाई !

तेरे कलम में वो ताकत है
जो अब भी कुछ कर सकती है
दुख सिर्फ इस बात का है की वो
चंद रुपयोंमें अखबार में बिकती है !

तू समझता है इस कटोरेमें
जो आँसूं है , वो सिर्फ मेरे है?
भाई मेरे, MEDIA ने तब भी
PARTIALITY की और चँद नाम ही बताएं
किसीको "राष्ट्रपिता", किसीको "चाचा" बनाया
पर कईं नाम आज तक रहें जताएं
तू बस् इतना जान ले, जलियनवाला बाग पताहै?
ऐसे कई लोग मरें-तेरे भाई हैं !

आज कश्मिर में आतंकवादियोंके हाथों
कई जवाँ मरते हैं जाँबाज सिपाही बनकर
अखबार में मगर हररोज छपता है
संजय दत्त और सलमान खान सियाही बनकर ! "

तभी मैंने पूंछा उस आवाज से,
"भगत जी , आप कहते हो ये आँसूं
हजारों लाखों शहीदोंके है ..पर्
फिर ये कटोर भर के बह क्यूं नहीं गया?"

कुछ विषण्णता से वह आवाज बोली,
"बेटा, पिछली साँठ साल से* रो रहें हैं.....* (१९४७ से)
कौन जाने, किसकी आँखे सूखीं हैं ?
और किसकी आँखोंके आँसूं कटोरे में रह गएं !

पर हम इतना जरूर जानतें हैं बेटा,
ये उम्मीद है के अब फिर इन्किलाब आएगा
सोएं हुवे शेर जागेंगे , पूरे देश में "कलम" और "कलाम" होगा
देश का भविष्य "अटल" होगा, जब ये सैलाब आएगा !

-----------उदय गंगाधर सप्रे-थाने-२६-मई-२००७-समय्-संध्या : ०६.३- से ०७.३०

Wednesday, April 16, 2008

ये मेरी दुनिया नहीं !


रसिक वाचक हो ,मी माझ्या कंपनी तर्फे गेल्या वर्षी इटाली-मिलान येथे गेलो होतो.सगळेच लोक जे इथे हसतमुख असायचे , ते तिकडे जाऊन अर्ध्या हळकुंडाने पिवळे व्हायचे ! प्रत्येकाच्या चेहेर्‍यावर "मीच शहाणा!" चे भाव असायचे , प्रत्येकाला आपल्याला मिळत असलेल्या २३ यूरो "खर्ची" मधून जास्तीत जास्त यूरो कसे वाचवता येतात याचीच जास्त "चिंता".या जगात प्रत्येक शेरास सव्वा-शेर असतोच हे ह्यांच्या गावीच नाहे जणू ! तिथले सुंदर वातावरण - अर्थात् आपल्या दॄष्टीने जरासे "इंग्रजाळलेलेच म्हणा !" - पण ते उपभोगायची यांची इच्छाशक्तीच नाहिशी झालेली - कारण प्रत्येक जण "नोटा-डॉलर-यूरो" छापण्याच्या नादात इतका व्यस्त असायचा की त्यासाठी पोटाला पण पूर्ण खायचा नाही! पहिल्याच दिवशी हे सगळे लक्षात आले आणि जी कविता मला सुचली - ती ही कविता - मुद्दाम राष्ट्रभाषेत - हिंदी मधे लिहिली आहे जेणेकरून ती तमाम तिथल्या सो कॉल्ड "आपल्या" लोकांना कळावी ! यात कुणा एका विशिष्ट व्यक्तीचा उपहास करायचा उद्देश नाहिये ! पण एकूणच "डोळस्"पणे जगाकडे बघायची दॄष्टी असावी हे सांगण्याचा हा एक छोटासा प्रयत्न आहे !---------------उदय गंगाधर सप्रे-मिलान्-२५-फेब्रुवारी-२००७-सकाळी-०९.१५ वाजता


ये मेरी दुनिया नहीं !

क्या खूब समॉ है बाहर,जाडोंके दिनोंका है ये असर
दस फीट से बाहर कुछ दिखाई नहीं देता
कोहरेमें है दुनिया , धुंदलासा है ये जहॉ
"आशिक" मिझाझ हो उठ्ठे शायद मुर्दे भी यहॉ
पर मेरे "अपने" ही लोगोंकी मुसकान खो गई है कहॉ?
"तेईस यूरो" के "लेबल" लगाएं इन्सान है, बनिया नहीं
यूं तो ये लोग सभी मेरे अपने है, .....पर ये मेरी दुनिया नहीं !------------------!! १ !!

मौसम क तकाझा है , हर जवॉ दिल क इरादा है
जहॉ भी देखो इटालियन मर्द लडकीको चूमता है
देख उनका ये रंगीलापन् मेरा भी मन झूमता है
पर फिर "लटके हुवे"चेहेरोंका आईना घूमता है
मेरे देसकी लडकियोंके रुखसार पे जो छा जाती है शर्मसार की लाली
वो असर कहॉ तेरी गोरी चमडी पे मैडम्-ऐ-इटाली?
तूने देखा नहीं हिंदोस्तॉ ऐ इटालियन्, तो तू अभी जिया ही नहीं
यूं तो होंदोस्तॉनी भी यहॉ इटाली मं है.....पर ये मेरी दुनिया नहीं !....................!! २ !!

शायराना अंदाझ लेकर क्या खाक करें हम यहॉ?
डॉलर्-यूरो के हिसाब में निकलता हो हर किसीका दम् जहॉ
किसी हिंदोस्तॉनी के चेहेरेपे यहॉ मुस्कुराहट नहीं
ढूंडते है हम यहॉ शर्मो हया के रुखसार्-पर कुछ आहट नहीं
दुनियॉ तो हसीं है , पर हसके जीनेकी यहॉ चाहत नहीं
यहॉ सिर्फ "दिमाग" चलते हैं , दिल को मगर राहत् नहीं
कुछ ही दिनोमें लगता है, वतनका हक अदा किया नहीं
जिंदा लशें घूमती है मेरे ईर्द-गिर्द , हाय् .....ये मेरी दुनिया नहीं !....................!! ३ !!

मेरे अपने ही लोग मुझ्हे देखतें हैं पराई नजर से
डरता नहीं हुं मैं फिरंगियोंसे , मरता हुं पर ऐसे रह्-गुजरसे
जब दोस्त हो ऐसे जहॉ में , तो दुश्मन की जरूरत ही क्या?
बदन पे लाखों जख्म खाकर कोई जी भी ले शायद्
पर कहॉ बच पाएगा वो इस घुटन की असर से?
मैं कब्रस्तान में दिया जलाऍ ढूंडता हुं वो मझार
जिसके पैरोंतलें फूल खिलें हो हजार
याद रख ऍ हिंदोस्तॉनी, डॉलर्-यूरो के सिवा तूने
इस खुदगर्झ दुनिया से कुछ लिया नहीं
पर खुदा गवाह है इस बातका ऍ नादाँ
के नफरत के बदलेमें भी , हमनें प्यार के सिवा कुछ दिया नहीं !
जो दिनिया ने पाया-वो मैने पाया नहीं,
फिर मै क्यूं न कहूं , ये मेरी दुनिया नहीं ?....................!! ४ !!

साथी न कोई हमसफर , कोई "मिला-न" मुझे यहाँ
क्या इसिलिए भेजा था मुझे ऍ दोस्त "मिलान" यहाँ?
भूल जा अब तू तेरी भी जवाँ दिली
जी ले तू ये "सिकुडी" सी जिंदगी-जो भी मिली
गलती से अगर तू पाएं अपनी गली
जान ले ऐ दिल , "गलती से" तेरी किस्मत् तेरे साथ चली
मैं जहर का प्याला पी भी जांऊं हसते हसते हिंदोस्ताँ में
चाहे अमॄत् भी कोई दे मुझे लाकर तो वो भी मुझे यहाँ पीना-मियाँ नहीं
ये "तेरी" इटाली है ऍ दोस्त , ये मेरी "इंडिया" नहीं
ये तो सिर्फ रंगीला तेरा ही जहाँ है, .....ये मेरी दुनिया नहीं !....................!! ५ !!

Monday, April 7, 2008

आधार कुणाचा घ्यावा?




गीत माझे.....एक गझल


भेटीचे प्रेम


जिजाऊ पाहिजे


जुगार


रसिक मनाचा अवखळ झारा


सूर्य आणि रात्र


वर्षाव


रसिक


धबधबा आणि झरा


"उघड बार देवा आता" - एक विडंबन




"बसतेस वरी तू जेंव्हा" - एक विडंबन


पाऊस कळलांय का?


क्षण


माधुरी


असा ही एक दृष्टिकोन


दृष्टिकोन


मधुबाला


मनाचा सल्ला